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जिंदगी के लिए कविता हिंदी में – A Hindi Poem On Life

Amresh Mishra

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जिंदगी के लिए कविता: जिंदगी एक फूल की तरह होती है जो फूलों कि तरह कभी रुलाती, कभी हंसती,  कभी जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। मनुष्य की जिंदगी भगवान का एक खूबसूरत तोहफा है जिसे हर एक मनुष्य अपने हिसाब से जीता है। दोस्तो आज हम आपके लिए लेकर आए है श्री हरिवंश राय बच्चन जी एक शानदार लाइफ पोइमस जो एक पथिक की लाइफ के ऊपर लिखी गई है।

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जिंदगी के लिए कविता हिंदी में – Best Hindi Poem For Life By  हरिवंश राय बच्चन 

नीचे मैंने श्री हरिवंश राय बच्चन के द्वारा रचित कुछ कवितायेँ आपके सामने प्रस्तुत किया है। उम्मीद है आपको ये कवितायेँ पसंद आएँगी।

1. मैं जग जीवन का भार लिए फिरता हूं – जिंदगी के लिए कविता

मे जग जीवन का भार लिए फिरता हूं,

फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूं,

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर,

में सांसो के दो तार लिए फिरता हूं।

में स्नेह सुरा का पान किया करता हूं,

में कभी न जग का ध्यान किया कार्य करता हूं,

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जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,

में अपने मन का गान किया करता हूं।

में निज उर के उदगार लिए फिरता हूं,

में निज उर के उपहार लिए फिरता हूं,

है यह अपुर्णं संसार न मुझको भाता,

में स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूं।

में जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूं,

सुख दुख दोनों में मग्न रहा करता हूं,

जग भव सागर तरने को नाव बनाए,

में भव मोजो पर मस्त बहा करता हूं।

में यौवन का उन्माद लिए फिरता हूं,

उन्मादो में अवसाद लिए फिरता हूं,

जो मुझको बाहर हंसा, रुलाती भीतर,

में, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूं,

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ?

नादान वहीं है, हाय, जहां है दाना,

फिर मुढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?

में सीख रहा हूं, सीखा ज्ञान भुलाना,

में और, और जग और, कहा का नाता,

में बना बना कितने जग रोज मिटाता,

जग जिस प्रथ्वी पर जोड़ा करता वेभव

में प्रति पग से उस प्रथ्वी को ठुकराता !

में निज रोदन में राग लिए फिरता हूं,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूं,

हो जिस पर भूपो के प्रसाद निछावर,

में वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूं,

में रोया इसको तुम कहते हो गाना

में फुट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना,

क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

में दुनिया का हूं, एक नया दीवाना,

में दीवानों का वेश लिए फिरता हूं,

में मादकता निःशेश लिए फिरता हूं,

जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

में मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं !

हो जाय न पथ में रात कही

मंजिल भी तो है दूर नहीं,

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी जल्दी चलता है !

दिन जल्दी जल्दी ढलता है !

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,

नीडो से झांक रहे होंगे,

यह ध्यान परो में चिड़िया के भरता कितनी चंचलता है !

दिन जल्दी जलदी ढलता है।

मुझसे मिलने की कौन विकल ?

में होऊ किसके हित चंचल ?

यह प्रशन शिथिल करता पद को, भरता उर में विहलता है ।

दिन जल्दी जल्दी ढलता है ।

2. पथ की पहचान – जिंदगी के लिए कविता

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,
आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

३. आज मुझसे बोल, बादल

आज मुझसे बोल, बादल!

तम भरा तू, तम भरा मैं,
ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

भेद यह मत देख दो पल-
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूंद है अनमोल, बादल
आज मुझसे बोल, बादल!

4. गर्म लोहा

गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
सख्त पंजा, नस कसी चौड़ी कलाई
और बल्लेदार बाहें,
और आँखें लाल चिंगारी सरीखी,
चुस्त औ तीखी निगाहें,
हाँथ में घन, और दो लोहे निहाई
पर धरे तू देखता क्या?
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

भीग उठता है पसीने से नहाता
एक से जो जूझता है,
ज़ोम में तुझको जवानी के न जाने
खब्त क्या क्या सूझता है,
या किसी नभ देवता नें ध्येय से कुछ
फेर दी यों बुद्धि तेरी,
कुछ बड़ा, तुझको बनाना है कि तेरा इम्तहां होता कड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

एक गज छाती मगर सौ गज बराबर
हौसला उसमें, सही है;
कान करनी चाहिये जो कुछ
तजुर्बेकार लोगों नें कही है;
स्वप्न से लड़ स्वप्न की ही शक्ल में है
लौह के टुकड़े बदलते
लौह का वह ठोस बन कर है निकलता जो कि लोहे से लड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंड़ा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

घन हथौड़े और तौले हाँथ की दे
चोट, अब तलवार गढ तू
और है किस चीज की तुझको भविष्यत
माँग करता आज पढ तू,
औ, अमित संतान को अपनी थमा जा
धारवाली यह धरोहर
वह अजित संसार में है शब्द का खर खड्ग ले कर जो खड़ा है।
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।

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अन्तिम शब्द,

आज इस पोस्ट में हमने जिंदगी के लिए कविता आपके सामने प्रस्तुत किया है। ऊपर मैंने हरिवंश राय बच्चन के द्वारा लिखा गया कई अन्य कविता भी आपके सामने प्रस्तुत किया है। यदि आपको  Life पर यह Hindi poem पसन्द आयी हो तो इसे अन्य लोगों के साथ शेयर करे। यदि आप हमसे किसी और कविता के बारे में जानना चाहते हैं तो हमें कमेंट करके बताएं।

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