प्रकृति पर कविता – Nature Poem In Hindi

प्रकृति पर कविता – Nature Poem In Hindi


प्रकृति हमारी मां की तरह होती है प्रकृति हमे हमारी मां की तरह ही बिना कुछ मांगे ही सबकुछ दे देती है। प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है अर्थात् प्रकृति के बिना हमारा जीवन बिल्कुल अधूरा सा है क्योंकि प्रकृति हमे अपने आंचल में समेटे हुए रखती है और हमारे जरूरत की सभी चीजे हमे फ्री में उपलब्ध करवाती है। लकड़ी, फल, ईंधन, ओषधियां मनुष्य को प्रकृति ही प्रदान करती है।

इनके अतिरिक्त भी कई सारे संसाधन प्रकृति से हमे प्राप्त है जिनका प्रयोग मनुष्य अपने दैनिक जीवन कर रहा है।


लेकिन अफसोस इस बात का है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति की सुंदरता से खिलवाड़ कर रहा है। मनुष्य अपने लालच और स्वार्थ को पूरा करने के लिए प्रकृति के पोधो को काट रहा है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए गहरा संकट है।


Hindi poem on nature - प्रकृति पर कविता


प्रकृति पर कविता – Nature Poem In Hindi


इसलिए सभी स्कूलों में प्रकृति के महत्व को समझाने के लिए प्रकृति की कुछ कविताएं ( Nature Poem In Hindi ) पढ़ाई जा रही है ताकि प्रकृति के महत्व के बारे में आप अच्छे से जान सके और प्रकृति से खिलवाड़ करने वाले लोगों को सजगता मिल सके।

मनमोहनी प्रकृति की जो गोद में बसा है ,

सुख स्वर्ग सा जहां है, वह देश कोनसा है ?
जिसका चरण निरन्तर रतनेश धों रहा है,
जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कोनसा है ?
नदियां जहां सुधा की धारा बहा रही है,
सींचा हुआ सलोना, वह देश कोनसा है ?
जिसके बड़े रसीले, फल, कंद, नाज, मेवे,
सब अंग में सजे है, वह देश कोनसा है ?
जिसमे सुगन्ध वाले, सुंदर प्रसून प्यारे,
दिन रात हंस रहे है, वह देश कोनसा है ?
मैदान, गिरी, वनों में हरियाली लहक,
आनंदमय जहां है, वह देश कोनसा है ?
जिसकी अनन्त धन से, धरती भरी पड़ी है,
संसार का शिरोमणि, वह देश कोनसा है ?
प्रातः नभ था बहुत नीला संख जैसे 
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चोका
अभी गीला पड़ा है।
बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से
की जैसे धूल गई हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने।
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और…..
जादू टूटता है इस उषा का अब 
सूर्योदय हो रहा है।

तिरती है समीर सागर पर
अस्थिर सुख पर दुख की छाया 
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया
यह तेरी रण तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी – गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में  प्रथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊंचा कर सिर
ताक रहे है, है विप्लव के बादल !
फिर – फिर
बार बार गर्जन
वर्षण है मूसलाधार 
ह्रदय थाम लेता संसार,
सुन सुन घोर वज्र हुंकार,
अशनी पात से शापित उन्नत शत शत वीर
क्षत विक्षत हत अचल शरीर
गगन स्पर्शी स्प्रदा धिर।

बार बार गर्जन
वर्षण है मूसलाधार 
ह्रदय थाम लेता संसार,
सुन सुन घोर वज्र हुंकार,
अष्नी पात से शापित उन्नत शत शत वीर,
क्षत विक्षत हात अचल शरीर
गगन स्पर्शी सप्रदा धिर।
हंसते है छोटे पोधे लगुभार
शस्य अपार,
हिल हिल,
खिल खिल
हाथ हिलाते
तुझे बुलाते
विप्लव रव से छोटे ही है शोभा पाते।

अट्टालिका नहीं है रेे
आतंक भवन 
सदा पंक पर ही होता 
जल विप्लव प्लावन 
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर
रोग शोक में भी हंसता है
शैशव का सुकुमार शरीर
रुद कोश है क्षुब्द तोश 
अंगना अंग पर कांप रहे है
धनी वज्र गर्जन से बादल
त्रस्त नयन मुख धंप रहे है।

जिर्णं बाहु, है शिर्णं शरीर 
तुझे बुलाता कृष्क अधीर 
ए विपल्व के वीर 
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मात्र ही है आधार
ए जीवन के पारावर !

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